Wednesday 23 August 2017





                   5. आख़री वाइसराय, माउंटबैटन  
जिस वक़्त अदूरदर्शी भावनाएं और  विचारों की अभिव्यक्तियाँ  अपने अपने तरीकों से देश की एकता को भंग करने के प्रयास में लगीं थीं साबरमती का वह संत टैगोर के गीत से प्रेरित अकेला देश को जोड़ने के प्रयास में लगा था . अखंड भारत उसका स्वप्न था और अखंड स्वाधीन भारत ही उसका  अकेला लक्ष था जिसे वह हर हाल में हासिल करना चाहता था. नया वाइसराय जो भारत आ रहा था , पराधीन राष्ट्रों की स्वाधीनता का पक्षधर था , भारत को अखंड रखना छाता  था , गांधी का बहुत सम्मान करता था पर वह भारत आने से कतरा रहा था क्योंकी पराधीन राष्ट्रों की स्वाधीनता का पक्षधर होने के बावजूद वह साम्राज्य के अवश्यम्भावी अंत का सूत्रधार बनने से बचना चाहता था.

 लन्दन में महायुद्ध के दो वर्षों बाद नववर्ष की पूर्व संध्या कुछ ज्यादा ही ठण्ड बटोरे, उससे भी ठंढे मन से दस्तक देते नववर्ष को, अपनी मजबूरियों में घिरी, युद्ध द्वारा दिए हुए घावों में कराहती, अनसुना कर रही थी. ठण्ड ऐसी की मुंह से बाहर निकलती साँसें हीं धुंआ प्रतीत होतीं कमरों में कुछ गर्मी और कुछ धुंध बिखेर रहीं थी. ना टर्की का गोश्त था न ही गर्माहट के लिए शराब जो कहीं कहीं मिल भी रही थी तो लोगों के पहुँच से बाहर, आठ पौंड की कीमत पर. लोगों के जूतों और कपड़ों पर पैबन्दों की संख्या ज्यादा ही दिख रही थी. दरजी और मोची अती जीर्ण हो चुके वस्त्रों और जूतों की मरम्मती में कतिनायी महसूस कर रहे थे. चीज़ें नदारत थी और राशन का दौर था. साम्राज्य पर सदियों से बिना खलाल उदित और प्रकाश बिखेरता सूरज भी अब उस पर अस्त होने को विवश सा हो चला था.

 एक कार सन्नाटा बिखरी सड़कों पर सरपट प्रधान मंत्री के निवास दस डाउनिंग स्ट्रीट की ओर दौड़ी चली जा रही थी जिस पर सवार था ज्यूरिक से आया एक शक्श जिसे प्रधान मंत्री एटली  ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण जिम्मेवारी के निर्वाह के लियी चुना था जिसे स्वीकारने से यह शख्स कतरा रहा था. ऐसा नहीं की गंभीर चुनौतियों को स्वीकार करने में वह हिचकता था पर यह जिम्मेवारी ही कुछ ऐसी थी जो किसी न किसी रूप से बर्तानी साम्राज्य के सम्मान से जुडी थी और जिसकी निर्वाहन से बर्तानी ताज की तौहीन अब नियती थी. यह शक्श जो खुद शाही परिवार से संबधित था इस अपमान का किरदार नहीं बनना छठा था बावजूद इसके की वह खुद सारे गुलाम राष्ट्रों की आज़ादी का पक्षधर था.शाही परिवार का यह सदस्य इसलिए इस जिम्मेवारी को स्वीकार नहीं करना कहता था क्यों की इस जिम्मेवारी का निर्वाहन उसके अपने मत का ही हिस्सा होते हुए भी कुछ और लोगों की  भावनाओं के विपरीत थीं  जो बर्तानी साम्राज्य का अंत किसी भी रूप में स्वीकाएने को तैयार नहीं थे. इनमें बर्तानिया के पुर्व प्रधानमंत्री चुर्चिल भी शामिल थे  चुर्चिल की सरकार जो हाल ही में एटली की पार्टी से हारी थी किसी   भी हालत में भारत को स्वाधीनता देने के पक्ष में नहीं थी. वह  चुनाव तो हार चुकी थी पर दुसरे सदन में अब भी बहुमत में थी . एटली की पार्टी जो अब सत्ता में थी इस वचन के साथ सत्तारूढ़ हो सकी थी की वह साम्राज्य के हिस्सों को स्वाधीनता प्रदान करेगी.

 कार पर सवार वह शक्श माउंटबैटन पूर्ण रूप से गुलाम देशों की स्वाधीनता का पक्षधर था पर खुद साम्राज्य के इस अंत की शुरुआत करने से कतरा रहा था . उधर प्रधानमंत्री  एटली और उनकी सरकार किसी भी हालत में भारत को स्वाधीनता प्रदान करने में और विलम्ब नहीं करना चाहती थी क्योकि भारत से आ रहीं खुफिया रिपोर्टें पुरजोर यह बता रहीं थीं के भारत एक बड़े गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहा था . 1100  से भी ज्यादा रियासतों में बटा उपमहाद्वीप हिन्दू मुस्लिम वैमनस्यता के बीच एक गंभीर दृश्य प्रस्तुत कर रहा था . राजा अपने रियासतों की भारत से अलग स्वाधीनता कहते थे, मुसलमान अपना पृथक पकिस्तान. इनसे अलग गांधी ने राजाओं की प्रजा को राजाओं की महत्व्कांशाओं के विरुद्ध  और देश के सामान्य जनों को अखंड स्वाधीन भारत के स्वप्न के साथ जोड़ दिया था जिसकी समझ अंग्रेजों को थी और वह जानते थे की  यह अहिंसक सेनानी बहुत खतरनाक था और किसी भी हालत में भारत की अखंडता से समझौता करने को तैयार नहीं था . इन परिस्थितियों में बर्तानी हुकूमत को भारत से अपने क़दमों को वापस खींचना था . एटली को भारत में इन घड़ियों में एक दक्ष वाइसराय की आवशयकता थी . हालांकी न तो माउंटबैटन और न ही मुसलमानों  को इस बात का कोई भान था की माउंटबैटन की भारत के आख़री वाइसराय के पद पर नियुक्ती में नेहरु  मेनन का विशेष किरदार था . अगर मुसलामानों को इस का पता चल जाता तो माउंटबैटन की जिम्मेवारियां और जटिल हो जातीं.

प्रधान मंत्री निवास के सामने कार रुकी और उसमे से छः फीट से भी कुछ उंचा खूबसूरत व्यक्तिव का स्वामी उतरा और दरवाजे से अन्दर दाखिल हुआ. प्रधान मंत्री उनका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे . बिना वक़्त खोये वार्तालाप शुरू हुई. प्रधान मंत्री ने माउंट को अपने पास बुलाने का कारण बताया . माउंट पूरी  तैयारी के साथ आई थे उन्होंने तय कर रखा था की वो अपनी नियुक्ती स्वीकार करने के लिए ऐसे शर्त रखेंगे जो प्रधान मंत्री को कभी भी स्वीकार ना हो और इस तरह वह खुद को ऐसी नियुक्ती से बचा पाएंगे. उन्होंने ना ना प्रकार की  कुछ सही और कुछ अजीबोगरीब शर्तें प्रधानमंत्री के सम्मुख रख डालीं , जब प्रधान मंत्री ने ये शर्तें मान ली तब खुद को फंसते हुए देखकर माउंट ने उनसे अपने इस्तेमाल के लिए एक वायुयान जिसका वो पूर्व से इस्तेमाल करते आये थे मांग डाला इस उम्मीद के साथ की इन जटिल आर्थिक परिस्थितियों में  उनकी यह मांग स्वीकारी नहीं जायेगी और वह इस संकट से निकल जायेंगे. प्रधान मंत्री ने उनकी इस मांग को भी मान लिया.

अब प्रधान मंत्री ने माउंट को भारत में उपस्थित गंभीर स्थितियों से अवगत कराना शुरू किया. किस तरह भारत के तीस करोड़ हिन्दुओं और दस करोड़ मुसलामानों के बीच देश के अलग अलग भागों में दंगे भड़क रहे थे और कत्लेआमों का दौर था . उनकी गंभीरता इतनी बढ़  गयी थी के निर्वतमान वाइसराय वैवेल ने प्रधान मंत्री को मंत्रणा दी थी की इंग्लैंड को तत्काल भारत को उसके हाल पर छोड़ कर निकल जाना चाहिए ,इस ऐलान के साथ की इसका किसी तरह का भी विरोध इंग्लैंड के खिलाफ युद्ध समझा जाएगा जिससे उचित सख्ती के साथ निपटा जायेगा. महाद्वीप जो एक समस्या बन चुका था उसके हल में अब और विलम्ब के परिणाम बहुत गंभीर और नियंत्रण के बाहर जा सकते हैं . इस समस्या का हल माउंटबैटन को ही ढूंढना था . माउंट ने खुद को बचाने का एक और मौका ढूंढ लिया “ मिस्टर प्राइम मिनिस्टर , अगर आप इस जहाज को चलने की जिम्मेवारी मुझ पर सौंपना चाहतें हैं तो फिर मैं इस जहाज को अपनी समझ से चलाऊंगा और इसमें किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करूंगा और हिन्दुस्तान की स्वाधीनता से सम्बंधित सारे निर्णय खुद लूँगा और इस में किसी का दखल मंजूर नहीं करूंगा “. प्रधान मंत्री ने हैरत भरी निगाहों से एडमिरल माउंट की ओर देखा और पुछा, “क्या यह  बादशाह से खुदमुख्तारी की अपेक्षा नहीं ? “ आप ऐसा ही समझें , माउंट  ने जवाब दिया ”. प्रधान मंत्री ने कुछ सोचा , मुस्कुराए और स्वीकारोक्ती में सर झुका दिया.


 माउंटबैटन वाइसराय की जिम्मेवारी से नहीं बच सके पर उन्होंने अब भी एक मौक़ा ढूंढ लिया, अपने मित्र और संबंधी बादशाह एडवर्ड के पास पहुँच गए . बातचीत के क्रम में उन्होंने बादशाह एटली के साथ हुई मंत्रणा की जानकारी दी और किसी उम्मीद के साथ कहा “ योर हाइनेस !कान्ग्रेसिओं अगर मैं भारत में अपनी जिम्मेवारिओं में विफल हो गया तो ताज का बहुत अपमान होगा “. बादशाह ने जवाब दिया, “ माउंट ! “अगर आप अपनी जिम्मेवारिओं में सफल हो गए तो इससे बर्तानी ताज का सम्मान और बढ़ जायेगा “. माउंट अपनी योजना में विफल हो चुके थे उन्हें नहीं मालूम था की प्रधान मंत्री ने बादशाह के साथ गंभीर गोपनीय मंत्रणा के उपरान्त ही उन्हें भारत भेजने का निर्णय लिया था माउंट जिसके जानकार अब भी न हो सके थे. 

Sunday 20 August 2017





                   विभाजन से जुडा एक गोपनीय तथ्य

देश के विभाजन के कोई बत्तीस वर्षों बाद माउंटबैटन का सामना समय से पीले पड़ गए एक अति गोपनीय दस्तावेज से हो गया. वो बेचैन हो गए, काश समय रहते उन्हें इस तथ्य की जानकारी मिल गयी होती तो वे भारत को टूटने से बचाया जा सकता था. दस्तावेज और उससे सम्बंधित वह काला प्लेट जो दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे वे साफ़ तौर पर बता रहे थे की ये जानकारी एक ऐसे व्यक्ती से सम्बंधित थी जो अगर उचित समय पर उपलब्ध हो जाती तो इतिहास का स्वरुप ही भिन्न होता. तस्वीर और तथ्य बताते थे की जिस व्यक्ति के विषय में ये जानकारियाँ थीं वह कोई और नहीं, जिन्ना थे और तपैदिक से ग्रसित उनकी हालत इतनी बिगड़ चुकी थी की उनके पास जीवन के कुछ ही महीने शेष थे और अगर ये जानकारी माउंटबैटन के पास होती तो वे भारत को स्वाधीनता देने की अपनी योजना को कुछ महीनों तक टाल देते और इस तरह भारत को विभाजित होने से बचा पाते.
 माउंटबैटन को यह जानकारी विचलित कर गयी. विवशताओं के दायरे ने उन्हें भारत को तोड़ने पर मजबूर कर दिया था और उन्हें विवश करने वाले मुख्य रूप से जिन्ना ही थे. माउंटबैटन अब विचलित ही हो सकते थे, उनका मानना था की अगर उनके पास यह जानकारी रहती तो वे जिन्ना के गुजर जाने तक अपनी भारत को स्वाधीनता देने सम्बन्धी योजना को कुछ काल के लिए टाल देते और बदली परिस्तिथियों में भारत को विभाजन से बचा लेते. माउंटबैटन को भारत के विभाजन से मिली पीड़ा और जिन्ना की हठधर्मिता को उनके उस बयान में महसूस किया जा सकता है जब उन्होंने 1971 के युद्ध में पाकिस्तानी शिकस्त और बांग्लादेश की आज़ादी के बाद अपनी प्रतिक्रया में दिया जब उन्होंने कहा , “ मैंने जिन्ना  से कहा था की उनका भिर्नियों से खोखला हुया पाकिस्तान पचीस वर्ष भी पूरे नहीं कर सकेगा “. पाकिस्तान अपने चौबीसवें वर्ष में ही टूट चुका था.

अप्रील १९४७ से बम्बई के एक डॉ पटेल के दफ्तर में अति गोपनीय ढंग से लिफाफे में मुहरबंद ये तथ्य जिनकी जानकारी बर्तानी खुफिया एजेंसियों को भी नहीं हो सकी थी , अगर माउंटबैटन, गाँधी , नेहरु और पटेल को मालूम होतीं तो शायद भारत विभाजित होने से बच सकता था पर इस तथ्य की गोपनीयता बनी रह गयी और जिन्ना को उनका पकिस्तान उनके जीवन काल में मिल गया. डॉ पटेल ने अपने पेशे के प्रती अपने धर्म का निर्वाह किया था . उन्होंने अपने पेशे की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया. उन्होंने जिन्ना के स्वास्थ की गोपनीयता बनाए रक्खी . धर्म के उनके इस इस आग्रह ने देश की अखंडता को बने रहने से वंचित कर दिया पर उन्हें इसके लिए शायद कुसूरवार ठहराया नहीं जा सकता.

माउंटबैटन के भारत आगमन से नौ माह पूर्व जून १९४६ से जिन्ना का उपचार कर रहे डॉ पटेल के पास ये गंभीर और ऐतिहासिक जानकारियाँ थीं,जिन्ना के फेफड़े गंभीर रूप से संक्रमित हो गए थे, उनका जीवन संकट में पड़ चुका था और उनके जीवन के कुछ महीने शेष बचे थे और उनकी आयू भी अब अपने सत्तरवें वर्ष में थी.
 मई १९४६ में शिमला में जिन्ना गंभीर रूप से ब्रोंकाइटिस से पीड़ित हो गए थे. द्वितीय विश्व युद्ध से कुछ पूर्व उन्होंने बर्लिन में भी अपना उपचार कराया था, कुछ लाभ तो हुआ था पर जब वे कभी कभार भाषण देते तो उसके बाद बुरी तरह से हांफ रहे होते. शिमला में जब उनकी हालत गंभीर रूप से बिगड़ गयी तो उनकी बहन फातिमा  तत्काल उन्हें अपने साथ ले बम्बई के लिए निकल पडीं पर रास्ते में ही जिन्ना की हालत गंभीर रूप से बिगड़ गयी. उनकी बहन ने किसी तरह से बम्बई के डॉ पटेल से संपर्क स्थापित  किया. डॉ पटेल बम्बई से बाहर ही किसी तरह रेल पर सवार हो गए और जिन्ना के जांच उपरान्त कहा की उनकी हालत इतनी बिगड़ चुकी थी की वे किसी भी हालत में बम्बई में रेल से उतर स्टेशन से बाहर तक की यात्रा जीवित अवस्था में पूरी नहीं कर पाएंगे. नतीजतन,बम्बई स्टेशन पर जिन्ना का स्वागत करने पहुंची भीड़ इन्तजार करती रह गयी उन्हें भीड़ से बचाने के लिए बम्बई से बाहर ही एक स्टेशन पर रेल से उतारा गया और डॉ पटेल अपने चिकित्सालय ले गए.

गहन जांच उपरान्त डॉ पटेल ने अपने मित्र जिन्ना को बड़ी साफगोई के साथ वस्तुस्तिथि से अवगत करा दिया. उनकी जीवनी शक्तियां जीर्णता को प्राप्त हो चुकी थीं और अब उनके और उनकी मौत के बीच एक दौड़ थी, निश्चय के साथ यह नहीं कहा जा सकता था की इस दौड़ में कौन आगे निकलेगा. उन्होंने जिन्ना को अपने सामान्य क्रिया कलापों में कटौती करने की सलाह दी पर जिन्ना के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई. उन्होंने ने अपने मित्र डॉ पटेल से कहा की उनके क्रिया कलापों में इस ऐतिहासिक घडी में कटौती का कोई प्रश्न ही नहीं था. वे अपने जंग को किसी भी हालत में तब तक त्यागने को तैयार नहीं थे जब तब खुद सुपुर्दे ख़ाक न हो जाएँ . वो खुद को अपने कर्तव्यों से विचलित होने की इजाज़त देने को तैयार नहीं थे , उनके लिए उनके मित्र के आराम का मशविरा कोई मायने नहीं रखता था. उन्हें भय था की अगर उनके बिगड़ते स्वास्थ की जानकारी उनके विरोधियों को हो जाती तो पकिस्तान की उनकी मांग पर इसका प्रतिकूल असर पड़ जाता. वो यह मानते थे की उनके विरोधी विभाजन को उनकी मौत तक टाल जाते और फिर उनके मृत्यु के बाद पकिस्तान का बनना कठिन हो जाता क्यों की मुस्लिम लीग में उनके नीचे के पायदान पर खड़ा नेतृत्व किसी न किसी कारण  कांग्रेसी नेताओं, गांधी और माउंटबैटन की बातों में आ जाता और इस तरह पकिस्तान बनने से रह जाता.


अब के बाद जिन्ना हर हफ्ते सुईओं के सहारे अपने जीवन को कुछ दीर्घता प्रदान करने लगे . अपने डाक्टर मित्र की हिदायत के बावजूद और भी  अधिक क्रियाशील हो गए, डॉ पटेल ने उनकी बीमारी की गोपनीयता बनाए रखी और माउंटबैटन पर पकिस्तान की मांग और बढ़ गयी, अविभाजित बंगाल और पंजाब में इतिहास के सबसे बड़े और दुखद कत्लेआमों का दौर शुरू हो गया ,अकेले बंगाल में ही २५००० जानें जा चुकीं थी , मरनेवालों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे उधर पंजाब में  भी कुछ इसी तरह कत्लेआम छिड़ा हुआ था, पंजाब और बंगाल से आ रही ख़बरों ने ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया था. महायुद्ध ने उनकी कमर तोड़ डाली थी.एटली की सरकार जल्द से जल्द उपमहाद्वीप से अपने आप को वापस निकाल लेना चाहती थी. एक शख्स था जो हारने को तैयार नहीं था. लाख व्यवधानों के बावजूद उसकी मात्र मौजूदगी से दंगे रुक जाते थे. गांधी हिन्दू और मुसलमानों के बीच अमन का सन्देश फैला रहे थे पर जिन्ना और उनके सहयोगी कुछ और चाह रहे थे , अगर बापू राष्ट्र को अखंड रखने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने में लीन थे जिन्ना सुइयों के सहारे देश को तोड़ने पर अडिग थे. माउंटबैटन नेहरू और पटेल भी अब जिन्ना से ऊब चुके थे और विभाजन को नियती मान स्वीकार कर चुके थे..................क्रमशः 

Friday 11 August 2017

Salok6226:                    3. मुस्लिम लीग और विभाजन भार...

Salok6226:

                   3. मुस्लिम लीग और विभाजन
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:                     3. मुस्लिम लीग और विभाजन भारतीय रास्ट्रीय कांग्रेस स्थापना ने तत्काल ही मुसलमानों में प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी...


                   3. मुस्लिम लीग और विभाजन

भारतीय रास्ट्रीय कांग्रेस स्थापना ने तत्काल ही मुसलमानों में प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी. सर सय्यद अहमद खान जो पेशे से एक न्यायधीश थे और जिन्होंने 1875 में, अलीगढ में मुहम्मदन एंग्लो ओरिएण्टल कालेज की स्थापना की थी, कांग्रेस को एक शिक्षित हिन्दुओं की पार्टी मानते थे जिसपर वो हिन्दुओं की वर्चस्वता   देखते  थे. मुसलमान हिन्दुओं की तुलना में अंगरेजी शिक्षा पाने में पिछड़े हुए थे और इस कारण वे कांग्रेस में खुद को अलग थलग महसूस करते थे. सर सय्यद अहमद मुसलमान को एक अलग कौम मानते थे जिनकी अपनी पहचान और रुचियाँ थीं और उनका मानना था की  अंग्रेजों से बेहतर सम्बन्ध कायम कर मुसलमान बेहतर लाभ उठा सकते थे. उनकी समझ से कांग्रेस में रहना मुसलमानों के लिए घाटे का सौदा था.यह पहली बार था की सय्यद अहमद की जुबान से हिन्दुस्तान में  मुसलामानों की कौम की दृष्टी से अलग होने की बात साफ शब्दों में प्रकट हुई . और शायद यही वो चिंगारी थी जिसे हिन्दू भावनाओं को धीरे धीरे भड़काना था.

मद्रास में बुलाये गए एक कांग्रेसी सभा में मुसलमान नवाबों और रईसों और बदरुद्दीन की कांग्रेसियों के बीच मौजूदगी से नाराज़ सर सय्यद अहमद खान ने मेरठ में मार्च 1888 में एक बहुत ही भड़काऊ भाषण दिया, उनके  भाषण  में हिन्दुओं के प्रती एक नफरत भरे संशय की झलक थी. उन्होंने अशिक्षित मुसलमानों का बर्तानी शासन के अधीन रहना किसी भी हिन्दू बहुल शासन व्यवस्था  के अधीन रहने से बेहतर माना तब तक, जबतक मुसलमान अपनी शिक्षा के स्तर को हिदुओं के समकक्ष नही ले आ पाते. वे मुसलमानों को एक अलग कौम मानते थे जिसने 700 वर्षों तक इस हिन्दू बहुल राष्ट्र को अपने अधीन रखा था. उनकी समझ में अंग्रेज जो किसी दृष्टीकोन से एक ही किताब के मुसलमानों के भाई थे, उनके शासन में रहना मुसलमानों के लिए हिन्दू बहुल किसी भी व्यवस्था के अधीन रहने से कहीं अधिक सम्मानजनक था. वे मुसलामानों को अंग्रेजों के साथ बेहतर संबंधों की स्थापना की बात कर रहे थे और कांग्रेसियों की अंग्रेज शासकों से देश की शासन व्यवस्था में भारतीय प्रतिनिधित्व की मांग  का कट्टर विरोध कर रहे थे . उनका कहना था की किसी भी हारी हुई कौम का विजयी कौम से किसी भी तरह के प्रतिनिधित्व की अपेक्षा करना एक जुल्म था और इस तरह वह कांग्रेसियों के बर्तानी शासन में किसी भी तरह की भागीदारी की मांग को सिरे से खारिज कर रहे थे .हिन्दू बहुल व्यवस्था का भाग या उसके अधीन रहने से बेहतर वो ऐसे बर्तानी शासन के पक्षधर थे, जिसका भले ही कभी भी अंत न हो और भले ही वह हमेशा के लिए इस राष्ट्र पर काबिज रहे.

अक्टूबर 1906 , देश के 35 धनी मुसलमानों ने वाइसराय लार्ड मिन्टो से मिलकर मुसलमानों की हित की बातें कीं. उन्होंने बर्तानी सरकार से हिन्दु बहुमत के तथाकथित असहिष्णु व्यवहार के खिलाफ मदद मांगी. लार्ड मिनटों  ने उनका स्वागत किया और आश्वासन दिया की बर्तानी सरकार हर हालत में मुसलमानों के हितों की रक्षा सुनिश्चित करेगी. चुंकि बर्तानी सरकार भारतियों को शासन में  थोड़ी बहुत भागीदारी देने का मन बना चुकी थी इसलिए इस प्रतिनिधीमंडल ने इस वक़्त मिन्टो से मिलना अनुकूल समझा और इस तरह मुसलमानों का कांग्रेसी विरोधी रवैया अब स्पष्ट होने लगा था वे ऐसा मानने लगे थे की कांग्रेस के दबाव में लोकशासन और व्यवस्था में कुछ परिवर्तन लाने की परिवर्तित बर्तानी मंशा का लाभ अगर मुसलमानों को उठाना था तो उनके लिए संगठित होने की आवशयकता बन आई थी और उन्हें अब एक राजनातिक दल की स्थापना कर लेनी थी. मुसलमानों की इस मंशा से किसी ना किसी रूप में भारत में कांग्रेसियों  द्वारा किये जा रहे स्वाधीनता आन्दोलन में विभाजन कराने का एक अवसर अंग्रेजों को मिल चुका था. और ऐसा ही ढाका में दिसम्बर 1906 में  आगे चल कर हुआ जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई.

ढाका में मुस्लिम लीग के स्थापना के उपलक्ष में अपने अध्यक्षीय भाषण में मुश्ताक अहमद ने कहा, “ हमें  शुक्रगुजार होना चाहिए मरहूम सय्यद अहमद खान का जिन्होंने ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना उपरान्त मुसलमानों को इस  पार्टी से  अलग रहने की सलाह दी थी. उनका मानना था की मुसलमानों की जानोमाल की हिफाजत और बरक्कत इस पार्टी से अलग रहने में ही है.हमारी बेहतरी इसी बात में है की हम अंग्रेजों का दिल जीतें और उनके विशवास के पात्र  बने और बर्तानी हुकूमत को यह विशवास दिला दें की लम्बे अरसे तक इस मुल्क पर जो शासन करने का तजुर्बा हमारी कौम को हासिल है उसका बेहतर इस्तेमाल इस मुल्क में अंगरेजी शासन हमसे करा सकती है. हमें इस समझदारी से काम लेने की जरूरत है की किसी भी राजनीतिक अभिलाषा की पौध वफादारी की जमीन पर ही मुनासिब है और इस वजह से हमारा अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रती वफादार रहने की जरूरत है, इसी में हमारी बेहतरी है. आज हम इस मुल्क का पांचवा हिस्सा हैं अगर कल अंग्रेज़ इस ज़मीन को छोड़ कर चले गए तो इस मुल्क की हुकूमत उनके हाथों में आ जायेगी जिनकी तादाद हमसे चार  गुना है. अब आप हाजरीन समझ सकते हैं की उस हुकूमत के तहत हमारी हालत क्या होगी. हमे औरंगजेब के किये का ज़िम्मेदार ठहराया जायेगा और जवाब मांगे जायेंगे उसकी किये के,  जिसने दो सदियों पूर्व इस मुल्क पर राज किया था . इसलिए हमारी बेहतरी इसी में है की हम बर्तानी हुकूमत के अन्दर संगठित हों ‘’.

 लार्ड कर्जन ने कलकत्ता में 1900  में भाषण में कहा था , “ भारत के किस भाग ने औरंगजेब की तबाहियां दर्ज नहीं कीं. जब हम बनारस में नदी किनारे मस्जिदों की गगनचुम्बी मीनारों की खूबसूरती का अवलोकन कर रहे होते हैं तब हममे से कितनों को ख्याल आता है की इन मीनारों को खड़ा करने के लिए किस तरह विश्वेश्वर के मंदिर की तबाही  की गयी और उस तबाही से इन मीनारों के लिए निर्माण सामग्री जुटाई गयी.


 ढाका में 1906  में बुलाये गए मुस्लिम अधिवेशन के एक वर्ष बाद  1907  में  वीर सावरकर की अगुआई में 1857 के ग़दर और प्रथम स्वाधीनता संग्राम की 50वीं वर्षगाँठ पर हिन्दू मुस्लिम एकता की उस युद्ध में मिसाल देते हुए सावरकर हिन्दू- मुस्लिम एकता में बर्तानियों के खिलाफ हिंसक आन्दोलन  छेड़ने के पक्षधर दिखे. उनका मानना था की बर्तानी साम्राज्य की जड़ें हिंसक आन्दोलन के जरिये ही भारत से उखाड़ीं जा सकतीं हैं. वो अहिंसा को कायरता  मानते थे . उनके ये मत हिन्दू महासभा के 22 वें अधिवेशन में 1918 में प्रकट हुए. सावरकर के ही विचार बाद में  मुख्य रूप से उग्र हिन्दू विचारधारा और नाथूराम गोडसे के प्रेरणास्रोत बने. वीर सावरकर के नए विचार कालांतर में मुसलामानों के विचारों में हिन्दुओं के प्रती विरोधी मत की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं. ..........क्रमशः     

Thursday 10 August 2017

Salok6226:                  1. गाँधी और देश का सच  वर्तमान पी...

Salok6226:                  1. गाँधी और देश का सच  वर्तमान पी...:                   1. गाँधी और देश का सच  वर्तमान पीढी को राष्ट्र की  गुलामी से स्वाधीनता तक की उसकी ऐतिहासिक यात्रा संबंधी जानकारियों ...

                                    2. बापू और कांग्रेस                                

मैं अक्सर बापू से पूछता हूँ , बापू ! आपने कांग्रेस को स्वतंत्रता उपरान्त भंग करने का परामर्श क्यों दिया ? बापू तो हैं नहीं पर उन्होंने जो दिव्य अलख जलाया था और जिसकी रोशनी में हमने अपनी स्वाधीनता संग्राम की यात्रा संपन्न की, वह अलख तो आज भी जागृत है और उसी के सहारे प्रश्नों के उत्तर ढूढने की चेष्टा करता हूँ. क्या कारण रहा होगा बापू के परामर्श का ? बापू के लिए सत्य मात्र एक शब्द नहीं था वह उनके आग्रह की बुनियाद थी जिस पर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की नीव रक्खी थी. कोई भी मनुष्य निश्चयता के साथ यह तो नहीं कह सकता की उसने किसी देव को सशरीर अवतरित होते देखा पर वह इतना जरूर स्वीकार करेगा की उसने कुछ मनुष्यों को देवत्व को प्राप्त होते जरूर देखा.

वाल्मीकि एक दस्यु था पर जब उसे अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो उसने एक उत्तम चरित्र, राम की ही रचना कर डाली और हमें रामायण के दर्शन हुए. किन्ही दिव्य क्षणों में रामायण की रचना हो सकी होगी और यह दिव्यता वाल्मीकि के ह्रदय में ही अवतरित हुई होगी जब वे रामायण का सृजन कर सके होंगे. व्यास के भी ह्रदय में अवतरित दिव्यता का परिणाम गीता है जो बापू की प्रेरणास्रोत रही और उस महाकाव्य के श्रवन, मनन और निदिध्यासन से ही बापू के चिंतन और आचरण और उनके आग्रह को दिव्यता हासिल हो सकी. उनके अन्तः में अवतरित दिव्यता को ही नमन करते हुए माउंटबैटन  ने बापू को बुद्ध और ईसा के समकक्ष माना. बापू के लिए सत्य मात्र एक शब्द नहीं था वह नित्य था और पूर्ण था जिसे आज भी नकारा नहीं जा सकता. बापू वो देखने और समझने की दिव्यता रखते थे जो शायद उनके अनुयायी नहीं पा सकते थे और यदी ऐसा होता तो नेहरु फिर इंदिरा फिर राजीव फिर सोनिया फिर राहुल और प्रियंका तक ही कांग्रेस सीमित नहीं रह जाती.

अगर सिर्फ इतना ही नेतृत्व सामर्थ कांग्रेस में था तो कांग्रेस दरिद्र ही रही क्योंकि  उसने कांग्रेस की महानता को एक ख़ास परिवार के दायरे के बाहर ढूँढने की कोशिश नहीं की और इस तरह बापू ने जहां और जिनमें राष्ट्र की आत्मा ढूंढी थी उस आत्मा को ही कांग्रेस ने त्याग दिया और जब आत्मा ही शरीर से अलग हो गयी तो नश्वर शरीर को तो सड़ना ही था और उससे सड़ांध तो आनी शुरू होनी ही थी. अगर कांग्रेस प्रजातांत्रिक मूल्यों पर टिकी रहती तो उसका ऐसा हश्र नहीं होता. अगर कांग्रेस ने प्रजातांत्रिक मूल्यों का सम्मान किया होता तो आज कांग्रेस नेतृत्व शून्यता को प्राप्त नहीं होती उसके विपरीत नेतृत्व क्षमता के दृष्टिकोण से सामर्थवान होती. गांधी ने जिनमें देश की आत्मा को ढूंढा था वो आज भी देश के कामगारों और किसानों और देश के ग्रामों में स्थित आज़ादी के दशकों बाद भी सिसक रहा  है, जिनके सहयोग से देश ने स्वतंत्रता पायी, सरकारें बनी पर खुद जिनकी हालत बहुसंख्यक होने के बावजूद कभी ना सुधर सकी , देश दो धडों में बटा सा रह गया. एक गरीब बहुल , दूसरा अल्प पर धनी.

 हमने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ बापू नेतृत्व में संग्राम किया था, हम साम्राज्यवाद और राजतंत्र के खिलाफ थे पर स्वाधीनता प्राप्ती के उपरान्त भी हम राजतंत्र को त्याग नहीं सके और हमें इसकी झलक परिवारवाद में दिखती रही जो प्रजातंत्र की अवधारणाओं के विपरीत था. बापू इस आसन्न संकट को देख रहे थे, नेहरु, पटेल व अन्य उनके प्रिय थे पर बापू सत्य को नकारने वालों में से नहीं थे वरना उन्होंने कांग्रेस को आज़ादी उपरान्त भंग करने का परामर्श ही क्यों दिया होता. सत्य ऐसा प्रकाश है जिसका सामना करना और स्वीकारना बहुत ही कठिन है और सत्य से शाक्शात्कार वीर ही कर सकते थे और बापू एक ऐसे ही वीर थे. बापू ने काग्रेस को भंग करने का परामर्श क्यों दिया था उसके कारण देश के विभाजन और आज के कांग्रेस की दीन स्तिथि से साफ़ उजागर है.


अगर कांग्रेसी वास्तव में धर्म सहिष्णु रहे होते तो जिन्ना को नाराजगी का कारण नहीं मिलता और अगर कांग्रेस ने बापू के परामर्श को स्वीकारते हुए कांग्रेस को भंग  कर दिया होता तो कांग्रेस की स्वाधीनता संग्राम में किरदारी स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहती और उसका हश्र वह नहीं होता जो नेहरु और शास्त्री के उपरान्त हुआ. कांग्रेसी चिंतन अब वह नहीं रहा जिसके कारण उसके इतिहास और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास को एक  माना गया. यह गीता के प्रकाश में  मात्रभूमी के चरणों में समर्पित राष्ट्रभक्तों का कर्मसंयास था. सन्यासियों में करता का बोध नहीं होता, वे कर्तित्वाभिमान से ग्रसित नहीं होते, ना तो वे स्वस्तुती करते हैं और ना ही अपनी स्तुतीगान की अपेक्षा रखते हैं. निःस्वार्थ  लोकसेवा सन्यासियों का लक्ष और कर्म होते हैं  जो किसी भी निज स्वार्थ से जुड़े नहीं होते, पारिवारिक स्वार्थ तो दूर की बात. गांधी स्वार्थी संस्कृति के पक्षधर नहीं थे. उन्होंने अपने वर्तमान में ही भविष्य से मिल रहे संकेतों के प्रती संवेदनशीलता दिखाई थी और समय रहते कांग्रेस को उचित परामर्श दिया था पर शायद बापू ने अपने अनुयायिओं से कुछ अधिक ही अपेक्षा कर डाली थी, बाद की कांग्रेसी यात्रा स्वप्रमाणित है. वह परिवार से बाहर नहीं निकल सकी जो प्रजातंत्र के गाल पर तमाचा है. इस राष्ट्र के स्वार्थी नेताओं ने दो बार अपने नायकों के साथ धोखा किया. पहली बार गांधी के साथ और दूसरी बार लोकनायक जयप्रकाश के साथ.


  1932  में रहमत अली ने जब जिन्ना से पृथक पकिस्तान की बात की थी तो जिन्ना ने इसे बकवास माना क्योकी इस वक़्त तक वे खुद भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे, बाद में उनके मन में कांग्रेस के लिए जो कटुता उत्पन्न हो गयी वह कांग्रेस में चुनाव उपरान्त मुसलमानों को जिम्मेवारियों में शामिल ना करने की कुछ कांग्रेसी नेताओं की संकीर्ण हठधर्मिता के कारण हुई.


 बापू ने स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की भूमिका को ऐतिहासिक माना था वो नहीं चाहते थे की कांग्रेस आज़ादी उपरान्त राष्ट्र से चुनाव में अपने मात्रभूमी के प्रति निभाये गए अपने कर्तव्यों का पारितोषिक मांगे, पर बापू के परामर्श को किसी ने नहीं माना. नतीजा आज सामने है. राष्ट्र ने राजतंत्र से छुटकारा पाया था उसने राजाओं और राजकुमारों को अस्वीकार किया था पर एक प्रजातंत्रीय व्यवस्था के होते हुए भी किसी ना किसी रूप में राजतन्त्र भारतीय राजनीतिक संस्कृति का भाग बना रह गया और राष्ट्र को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पडी. बापू सही मायने में एक सन्यासी थे, ना तो उनमें कर्ता का बोध था और ना ही कर्तित्वाभिमान, वे तो लोक हितार्थी थे, लोकसंग्रह उनका लक्ष था धनसंग्रह नहीं, जो बाद में हमने अपने नेताओं में देखा.



बापू शुद्ध रूप से हिदू थे, सनातनी थे और जीवों के एकात्मता के ज्ञाता, वे ब्रह्मज्ञानी थे, शुद्ध आत्मस्वरूप के ज्ञानी थे. बापू हिन्दू थे और चुकी ब्रह्मज्ञानी थे इसलिए छुआछूत, जाती ,धर्म और पंथों में भेदभाव का विरोध करते थे, उन्हें मनुष्य के धर्म और उसकी वस्तुता का शुद्ध बोध था, एक हिन्दू होने के नाते वो जानते थे की धर्म कालान्तर में विकसित हुए रीति रिवाज मात्र नहीं, वह तो मनुष्य की वस्तुता में निहित है जो उसे पशु से भिन्न बनाता है. अलग अलग पात्रों में रक्खे  जल के सामान सारे मनुष्य उनकी नज़रों में एक समान थे जिनके प्रति भेद भाव की दृष्टी रखना उचित नहीं था. बापू धार्मिक सहिष्णुता की उस परिभाषा के पक्षधर हो नहीं सकते थे जैसी परिभाषा प्रस्तुत कर कांग्रेस ने धर्मों के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर डाली. हिन्दू , अगर वे हिन्दू हैं तो वे स्वभाव से ही सहिष्णू हैं  पर राजनीतिक अदूरदर्शिता ने उन्हें भी कलंकित कर दिया. इतिहास के किस काल खंड में हिन्दुओं नें कभी भी किसी अन्य धर्मनुआयी पर आक्रमण किया था फिर उनमें अब यह प्रतिक्रया क्यों उत्पन्न हुई................. क्रमशः

Monday 7 August 2017

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Salok6226:                  1. गाँधी और देश का सच  वर्तमान पी...:                   1. गाँधी और देश का सच  वर्तमान पीढी को राष्ट्र की  गुलामी से स्वाधीनता तक की उसकी ऐतिहासिक यात्रा संबंधी जानकारियों ...